” कितनी बार ,
तुम्हारे कलम की निबों से टपक ,
फैल कर रुका हूँ ,
मैं ,
कागज़ पर ।
कितनी बार ,
साड़ी या दुपट्टे के आंचल की ,
गांठ में ,
मैं ,
बँधा गया हूँ ।
कितनी बार ,
पानी की बूंद बन कर ,
मैं ,
सूखा हूँ मैं किसी ,
पुराने ख़त पर ।
कितनी बार ,
लफ़्ज़ों की जंग में
मैं ,
टूट कर किसी आंगन से ,
बुहारा गया हूँ ।
कितनी बार ,
जिस्म की खरोंचों में ,
मैं ,
भीतर कहीं बोया गया हूँ ।
कितनी बार ,
किसी के दरवाज़े की दस्तक से ,
पहले के असमंजस में ,लौटा हूँ ,
मैं ,
वापस चौखट को लाँघ कर ।
कितनी बार ,
पनपने से पहले ,
मरा हूँ ,
मैं ,
तुम्हारे अहम के खंजर से ।
कितनी बार ,
बांध कर पाला गया हूँ ,
मैं ,
दोस्ती के नाम से ।
कितनी बार पलटा हूँ
मैं
आखरी साँस के गंगा जल की तरह ।
और तुम कहते हो ,
मैं ,
वक़्त रुकता नहीं हूं किसी के लिए ।
अरे ,गुजरते तो तुम हो ,
मैं ,
तो बंधा रहता हूँ किसी ताबीज सा ,
अपने भीतर बहुत कुछ ,
समेटे हुए ।
एक बार ,
सिर्फ और सिर्फ ,
एक बार ,
तुम ठहर कर देखोऔर गुजर जाने दो ,
मुझे ।
वक़्त को ।”
निखिल
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