“चलो ,
कुछ खत फाड़ देते हैं ,
सहेजे थे जो कुछ उम्मीदों के लम्हे ,
उन्हें बुहार देते हैं ।
चलो ,
कुछ खत फाड़ देते हैं ,
कुछ पल जो ठहर के यहां ,
यादों की लकीरों से लिपटे सोते हैं ,
उनके घरोंदओंं को चलो फिर उजाड़ देते हैं ।
चलो ,
कुछ खत फाड़ देते हैं ।
ना तेरा था ना मेरा था ,
वो एक अजनबी सा लम्हा था ,
रिश्तों के पिंजरे से चलो इसे अब निजात देते हैं ।
चलो
कुछ खत फाड़ देते हैं ।
सहेजे थे किताबों में जो कुछ अल्फ़ाज़ बोले बिन ,
गंगा की लहरों में उसे एक आवाज़ देते हैं ।
चलो
कुछ खत फाड़ देते हैं ।
कुछ ये जिस्म झूठा था ,
गलती कुछ दिल से भी हुई ,
बहुत ठहरे अदालतों में ,
अब खुद ही अपनी दस्तकें हम बांट लेते हैं ,
चलो कुछ खत फाड़ देते हैं ।
रुको जो तुम अब कहीं आइने से मेरा पता ना पूछना ,
यहां आइने आंखों में छिपे एक बाल को भी भांप लेते हैं ।
चलो कुछ खत फाड़ देते हैं ।
” निखिल ”
Hindi Poetry by Nikhil Kapoor
Blog: Lamhe Zindagi Ke